कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
पापा, आओ
मालती का हृदय भर आया। अश्रुपूर्ण नेत्रों से उसने स्नेहिल को निहारा। दस-बारह दिन पूर्व वह उसकी कक्षा में भर्ती हुआ था। न किसी से बात करता, न किसी के संग खेलता। अपने में मग्न, मौन, गुमसुम, उदास, खोया रहता। दूसरे शिशु जहाँ कक्षा लगने के बाद भी शरारतें करते, चुहलबाजी करते, वह टुकुर -टुकुर सबको देखता एक कोने में गमगीन बैठा रहता। उसका यह खोयापन ही मालती को बरबस अपनी ओर आकर्षित करता। वह उसके पास जाकर बैठ जाया करती। उसके सिर पर हाथ फेरती, उसकी पीठ थपथपाती। धीरे-धीरे कुरेदकर पूछने पर मालती को मालूम हुआ-स्नेहिल अपनी मम्मी के संग नानाजी के घर रहता है। उसके पापा किसी अन्य शहर में रहते हैं। घर में सब बातें करते हैं-उसके पापा उसकी मम्मी को 'तलाक' देने वाले हैं!
'तलाक!' सुनते ही मालती के शरीर में ठंडी सिहरन-सी हुई। उसकी नस-नस जमने लगी।
नन्हा स्नेहिल सूनी निगाहों से उसे निहार रहा था, ''दीदी!...'तलाक' क्या होता है?''
'तलाक!' मालती का गला हठात रुँध गया। भला इस छोटे से अबोध शिशु को तलाक के माने क्या बतलाती? कैसे कहती-बेटे, तुम्हारे पापा तुम्हारी मम्मी को छोड़ना चाह रहे हैं। अलग होना चाह रहे हैं तुम्हारी मम्मी से...तुमसे भी। तुम दोनों से।
उसने होंठ भींच सहानुभूति से स्नेहिल के सिर पर हाथ फेरा। अपनत्व पाकर स्नेहिल अधीरता से उसके गले से झूल गया, ''बोलो न दीदी, तलाक क्या होता है?...मेरे को कोई कुछ नहीं बतलाता। मम्मी भी...'' उसका कंठ अवरुद्ध हो गया, ''रोती रहती हैं हरदम...''
भावातिरेक में मालती ने उसे सीने से भींच लिया। उसकी ममता की तपिश से स्नेहिल की रुलाई फूट पड़ी। कुछ देर तक रोने के बाद उसने अपना अश्रुविगलित मुखड़ा ऊपर उठाया, ''दीदी।...मेरे पापा आएँगे न.. मुझे लेने?...मेरी मम्मी को लेने?''
मालती सच बोलने की हिम्मत न जुटा सकी। उसने उसके सिर को थपथपा झूठी दिलासा दी, ''हाँ बेटे, जरूर आएँगे।''
''सच्ची!''
'हाँ' में सिर हिला वह हौले से मुसकाई।
''कब?''
''...!'' मालती चुप।
''बोलो न दीदी, कब आएँगे पापा?''
''अ...'' उसके इस मर्मस्पर्शी प्रश्न से वह हठात सकपका गई। उसे यकायक सूझ नहीं पड़ा। इस भोले मासूम बच्चे को किस तरह माकूल दिलासा दे? उसके मुख से रौ में स्वयमेव निकला गया, ''... अ...जब तुम उन्हें आने के लिए लिखोगे न, वे आ जाएँगे।''
''सच्ची?''
''हाँ बेटे।''
''फिर मुझे लिखना सिखाओगी?''
''जरूर सिखाएँगे, बेटे, हम अपने बेटे को सब...''
''तो सिखाओ न...'' तत्कण स्नेहिल ने बस्ता खोल पट्टी निकाल ली, ''...मैं पापा को लिखूँगा-'पापा, आओ!' ''
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- पापा, आओ !
- आव नहीं? आदर नहीं...
- गुरु-दक्षिणा
- लतखोरीलाल की गफलत
- कर्मयोगी
- कालिख
- मैं पात-पात...
- मेरी परमानेंट नायिका
- प्रतिहिंसा
- अनोखा अंदाज़
- अंत का आरंभ
- लतखोरीलाल की उधारी